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GYANGLOW

विदेशी मुद्रा विनिमय दर दूसरे देशों की मुद्रा के संबंध में एक देश की मुद्रा का कीमत है जब किसी वस्तु की कीमत की तरह मांग और आपूर्ति कारकों द्वारा निर्धारित की जाती है। इसे मुद्रा का विनिमय दर कहते हैं।

विनिमय दर क्या है इसका निर्धारण कैसे होता है?

जब हम विनिमय को किसी विदेशी मुद्रा की कीमत के रूप में देखते हैं, तो हम इस 'कीमत' को निर्धारित करने के लिए मांग और आपूर्ति के साधनों का उपयोग कर सकते हैं।

आपने कभी सोचा है कि भारतीय रुपये के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की कीमत में उतार-चढ़ाव क्यों होता रहता है?

बाजारों में मुद्रा विनिमय दरें कैसे निर्धारित की जाती हैं? यह क्यों बदलता रहता है? ये ऐसे सवाल हैं जो कई लोगों के मन में हैं लेकिन शायद ही किसी ने इसके कारणों पर शोध किया होगा। इस पोस्ट में, हम ठीक यही करेंगे। जानें कि भारत में विनिमय दरें कौन निर्धारित करता है और ये दरें कैसे निर्धारित होती हैं।

भारत में विनिमय दरें कौन निर्धारित करता है?

कोई भी नहीं। अधिक सटीक होने के लिए, कोई भी संस्थान या संगठन वर्तमान में रुपये की विनिमय दर निर्धारित नहीं करता है, यहां तक ​​​​कि आरबीआई भी नहीं। बल्कि, विदेशी मुद्राओं के साथ रुपये की विनिमय दर बाजार के कारकों के संयोजन से निर्धारित होती है।

भारत में मुद्रा विनिमय दरें कैसे निर्धारित की जाती हैं?

हमने पहले ही उल्लेख किया है कि कोई भी एक प्राधिकरण या संस्थान भारत में विनिमय दर निर्धारित नहीं करता है। भारत में एक अस्थायी विनिमय दर प्रणाली है जहां एक अन्य मुद्रा के साथ रुपये की विनिमय दर बाजार के कारकों जैसे आपूर्ति और मांग द्वारा निर्धारित की जाती है।

उदाहरण के लिए: यदि विदेशी मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ती है, तो डॉलर का मूल्य बढ़ जाएगा। वर्तमान में यह मामला है क्योंकि भारत से अमेरिका को निर्यात की तुलना में अमेरिका से भारत में अधिक माल आयात किया जाता है। स्थानीय भारतीय व्यापारियों को आयातित माल के लिए अमेरिकी डॉलर में भुगतान करना होगा। इस प्रकार वे अमेरिकी डॉलर को रुपये के बदले में खरीदते हैं जो यूएसडी की मांग को अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व बढ़ाता है।

आपूर्ति और मांग के अलावा, निम्नलिखित 5 कारक व्यापक रूप से एक मुद्रा की विनिमय दर निर्धारित करने में मदद करता है।

1. देश में महंगाई

आपने पुरानी पीढ़ी को महंगाई की शिकायत करते सुना होगा। वस्तुओं या सेवाओं की कीमत बढ़ जाएगी यदि वे दुर्लभ हो जाते हैं (कम आपूर्ति, समान या बढ़ी हुई मांग) या यदि अर्थव्यवस्था में धन अधिक आपूर्ति में है। इसे ही महंगाई कहते हैं। मुद्रास्फीति मुद्रा की क्रय शक्ति और इस प्रकार इसके मूल्य में गिरावट लाती है।

2. ब्याज दर या रेपो दर

भारत की ब्याज दर वर्तमान में 6% पर निर्धारित है और आरबीआई द्वारा तय की जाती है। यह वह दर है जिस पर आरबीआई भारत में बैंकों को पैसा उधार देता है। उच्च ब्याज दर का मतलब होगा कि निवेशक सरकारी बॉन्ड खरीदने के लिए दौड़ेंगे क्योंकि रिटर्न अधिक होगा। रुपये की मांग अधिक होगी और इसका मूल्य बढ़ेगा।

हालांकि, उच्च ब्याज दर का नकारात्मक पक्ष यह होगा कि जब बैंक लोगों को पैसा उधार दे रहे होते हैं, तो वे अपने ऋण पर लाभ कमाने के लिए आरबीआई द्वारा अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व लगाए गए शुल्क से भी अधिक ब्याज दर वसूलते हैं। यह उन लोगों को हतोत्साहित कर सकता है जो व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं या घर, कार खरीदने या अपनी शिक्षा के लिए ऋण लेना चाहते हैं। ऋण के रूप में पूंजी के प्रवाह के बिना, किसी देश की आर्थिक गतिविधि दब सकती है और धीमी हो सकती है।

3. चालू खाता घाटे का स्तर

एक चालू खाता एक देश के विदेशी लेनदेन का प्रतिनिधित्व करता है। चालू खाता घाटा का अर्थ है कि एक देश निर्यात के माध्यम से अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व पैसा कमाने की तुलना में विदेशों से सामान और सेवा आयात करने पर अधिक पैसा खर्च कर रहा है। चूंकि वस्तुओं और सेवाओं का आयात निर्यात से अधिक है, और आयात को विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है, इससे उस मुद्रा की मांग बढ़ जाती है और इसलिए रुपये के संबंध में इसका मूल्य बढ़ जाता है। यदि इसके विपरीत मामला था जहां निर्यात आयात से अधिक है, तो रुपये का मूल्य विदेशी मुद्रा के संबंध में बढ़ जाएगा।

4. सोने का आयात और निर्यात

हमने ऊपर विनिमय दर पर चालू खाता घाटे के प्रभाव के बारे में बात की। जब कोई देश निर्यात से अधिक वस्तुओं का आयात करता है, तो उसकी मुद्रा का मूल्य कम हो जाता है।

इसका एक सीधा असर भारत में सोना आयात करने के मामले में देखा जा सकता है।

क्या आप जानते हैं कि भारत दुनिया में सोने का सबसे बड़ा आयातक और धारक है?! अनुमान है कि यहां के लोगों के पास 25,000 टन तक सोना है।

ऐसे देश जो सोने के साथ कई तरह के उत्पाद बनाने में उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, लेकिन जिनके पास सोने का बड़ा भंडार नहीं है, वे स्वयं सोने के उच्च क्वानाइटाइट का आयात करते हैं। ऐसे देशों में आम तौर पर कमजोर मुद्रा होगी।

जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने की कीमत बढ़ती है, तो भारतीय रुपये की मजबूती उसी के अनुसार नीचे जाती है।

5. सार्वजनिक ऋण की राशि

यदि किसी देश में उच्च स्तर का बजट घाटा है और वह इस लागत को कवर करने के लिए उधार ले रहा है, तो इसका परिणाम कम मुद्रा मूल्यांकन होगा। यह कैसे होता है? भारी मात्रा में सार्वजनिक ऋण वाले देश में मुद्रास्फीति का बहुत अधिक जोखिम होता है। इसे या तो अपने ऋणों का भुगतान करने के लिए नई मुद्रा को प्रिंट करना होगा (जो फिर से मुद्रास्फीति को बढ़ाता है) या विदेशी निवेशकों को प्रतिभूतियों की बिक्री में वृद्धि करता है, इसलिए उनकी कीमतें कम होती हैं। अगर कर्ज बहुत बड़ा है और निवेशकों को देश के कर्ज को चुकाने की क्षमता पर भरोसा नहीं है, तो वे उस मुद्रा में मूल्यवर्ग की प्रतिभूतियों को खरीदने के लिए तैयार नहीं होंगे। इस प्रकार मुद्रास्फीति बढ़ेगी और मुद्रा मूल्यांकन नीचे जाएगा।

6. स्थिरता और आर्थिक विकास

आपको क्या लगता है कि विदेशी निवेशक अपना पैसा कहां लगाएंगे? एक युद्धग्रस्त देश में जहां कोई सरकार नहीं है, कोई आर्थिक नीति नहीं है और एक नष्ट अर्थव्यवस्था है या भारत की तरह एक स्थिर, मजबूत और विकासशील अर्थव्यवस्था में है?

विदेशी निवेशक अपने निवेश से लाभ की तलाश में हैं। इसलिए किसी देश के लिए निवेश आकर्षित करने के लिए एक स्थिर सरकार और मजबूत आर्थिक नीतियों का होना महत्वपूर्ण है। अधिक विदेशी निवेश से रुपये की अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व मांग में वृद्धि होती है और इसलिए इसकी कीमत बढ़ जाएगी।

जैसा कि आप ऊपर दिए गए बिंदुओं से देख सकते हैं, वर्तमान में, भारत में मुद्रा विनिमय दरें बाजार की ताकतों द्वारा निर्धारित की जाती हैं क्योंकि भारत एक निश्चित विनिमय दर प्रणाली के बजाय एक अस्थायी विनिमय दर प्रणाली का पालन करता है।

विदेशी बाजार में निवेश के क्या हैं फायदे?

अपने पोर्टफोलियो को डायवर्सिफार्इ करने का एक तरीका विदेशी बाजारों में निवेश करना है.

विदेशी बाजार में निवेश के क्या हैं फायदे?

2. विदेश में निवेश करने से कर्इ तरह के दमदार उद्योगों और कंपनियों में निवेश के रास्ते खुल जाते हैं. ये कंपनियां घरेलू बाजार में लिस्ट नहीं होती है. इस तरह इन कंपनियों के शानदार प्रदर्शन का फायदा आप नहीं उठा पाते हैं.अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व

3. इसका एक और बड़ा फायदा यह है कि आपको मुद्रा में उतार-चढ़ाव के जोखिम से राहत मिलती है. आपको अपने निवेश पर रिटर्न डॉलर में मिलता है. रुपये में गिरावट होने पर विदेशी मुद्रा में निवेश का मूल्य बढ़ जाता है. इसका आपको दोहरा फायदा होता है.

4. भारतीय रिजर्व बैंक के नियमों के अनुसार, लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम (एलआरएस) के तहत किसी भारतीय नागरिक को विदेश में हर साल 2,50,000 डॉलर तक निवेश करने की छूट है.

5. विदेशी बाजार में निवेश घरेलू ब्रोकरों के जरिए किया जा सकता है. इनका अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरों के साथ करार होता है. अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरों के जरिए सीधे भी निवेश किया जा सकता है. एक और विकल्प म्यूचुअल फंडों का अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व है. कर्इ म्यूचुअल फंड विदेशी बाजार में निवेश करते हैं. इनके जरिए भी आप विदेशी शेयरों में निवेश कर सकते हैं.

इस पेज की सामग्री सेंटर फॉर इंवेस्टमेंट एजुकेशन एंड लर्निंग (सीआईईएल) के सौजन्य से. गिरिजा गादरे, आरती भार्गव और लब्धि मेहता का योगदान.

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अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व

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ढाई महीने से ज्यादा हो चुके रूस और यूक्रेन की लड़ाई दुनिया के सामने हर दिन कई तरह के सवाल खड़ा कर रही है। एक अहम सवाल डॉलर की ग्लोबल करेंसी के तौर पर मान्यता से जुड़ा है। रूस के तकरीबन 300 बिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। रूस के सेंट्रल बैंक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। यानी रूस चाहकर भी डॉलर में जमा किये गए अपने पैसे का इस्तेमाल नहीं कर सकता है। रूस अपने सेंट्रल बैंक के जरिये दूसरे देश के साथ लेन देन नहीं कर सकता है।

इसका मतलब यह है कि रूस का पैसा रूस ही इस्तेमाल नहीं कर सकता है। जबकि किसी देश द्वारा डॉलर में विदेशी मुद्रा भंडार रखने का मतलब है कि जब उस देश को डॉलर की जरूरत पड़े तो उसे डॉलर मिल जाए। डॉलर जारी करने वाला देश भी यही वायदा करता है कि जब भी कोई देश अपनी विदेशी मुद्रा से डॉलर की मांग करेगा तो उसे डॉलर मिल जायेगा।

लेकिन रूस पर लगे प्रतिबन्ध से यह सवाल उठता है कि क्या वाकई विदेशी मुद्रा भंडार के तौर पर डॉलर का इस्तेमाल करना उचित है? डॉलर को विदेशी मुद्रा भंडार के तौर पर इस्तेमाल करने का मतलब कहीं अप्रत्यक्ष तौर पर अमेरिका की गुलामी स्वीकारना तो नहीं है?

यह कैसे जायज हो सकता है कि कोई देश अपने ही पैसा का इस्तेमाल नहीं कर पाए? मान लिया जाए कि भारत और पाकिस्तान के बीच लम्बे समय तक युद्ध चले, भारत के विदेशी भंडार पर अमेरिक प्रतिबन्ध लगा दे, तब क्या होगा? यह कुछ जरूरी सवाल है जो डॉलर को ग्लोबल करेंसी के तरह इस्तेमाल करने पर खड़ा हुए हैं? इन सभी सवालों पर सही दिशा में सोचने से पहले थोड़ा इस पहलू को समझ लेते हैं कि डॉलर को ग्लोबल करेंसी के तौर पर क्यों माना जाता है?

ग्लोबल करेंसी उस करेंसी को कहा जाता है, जिसके जरिये पूरी दुनिया के देशों के बीच सबसे अधिक लेन देन होता है। अंतर्राष्ट्रीय लेन देन में जिसे सबसे अधिक स्वीकार किया जाता अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व है। पिछले कुछ सालों का ट्रेंड देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर देशों के सेंट्रल बैंक के बीच तकरीबन 60 प्रतिशत लेन देन डॉलर में हो रहा है। पूरी दुनिया के विदेशी विनमय बाजार यानी फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में डॉलर की तूती बोलती है। तकरीबन 90 प्रतिशत विदेशी विनिमय यानी विदेशी लेन-देन डॉलर में होता है। दुनिया के 185 देशों की अपनी-अपनी करेंसी है। इनकी साख देश के सीमा के भीतर है लेकिन देश की सीमा के बाहर यानी विदेशी व्यापार के लिए दुनिया के सभी देश डॉलर का इस्तेमाल करते है। दुनिया का तकरीबन 40 प्रतिशत कर्ज डॉलर में दिया और लिया जाता है। पूरी दुनिया में डॉलर की इस तरह की स्वीकृति करना अमेरिका की मजबूत अर्थव्यवस्था है।

साथ में अगर तकनीकी तौर पर देखा जाए तो साल 1944 में ब्रेटनवुड समझौते के बाद पूरी दुनिया में डॉलर को मानक के तौर अपनाने की शुरुआत हुई। साल 1944 से पहले सोने की मांग के आधार पर देश अपनी मुद्रा की कीमत तय करते थे। साल 1944 के बाद ने देशों अपनी मुद्रा के पीछे डॉलर को अपनाना शुरू कर दिया। यह सब बताता है कि पूरी दुनिया में ग्लोबल करेंसी के तौर पर डॉलर का राज चलता है। कुल डॉलर के 65 फ़ीसदी डॉलर का इस्तेमाल अमरीका के बाहर होता है। देशों के केंद्रीय बैंक में जो विदेशी मुद्रा भंडार है उसका 60 फीसदी से फीसदी से अधिक हिस्सा अमेरिकी डॉलर में है।

डॉलर की यह मजबूती बताती है कि किसी देश के लिए डॉलर की अहमियत क्या है? अगर किसी देश को डॉलर से काट दिया जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि उसे आयात और निर्यात से काट दिया गया। उसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से काट दिया गया। वह अपने माल और सेवाएं दूसरे देश में इस तरह से नहीं बेच और खरीद सकता है, जिस तरह से दूसरे देश बेच और खरीद सकते हैं।

केवल रूस पर ही नहीं बल्कि ईरान, वेनेजुएला और अफ़ग़ानिस्तान सहित कई ऐसे देश हैं, जिन पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें डॉलर का इस्तेमाल करने से रोका गया। जब इस तरह की कार्रवाई की जाती है तो उस भरोसे को तोड़ा जाता है, जिसके ऊपर वैश्विक व्यापार काम करता है। चाहे जो भी कारण हों लेकिन इस भरोसे को तोड़ना कि कोई अपने ही पैसे का इस्तेमाल न कर पाए, यह दुनिया की अब तक की व्यवस्था पर कड़े सवाल उठाता है।

डॉलर के केंद्र में घूमती दुनिया के वित्तीय बाजार पर खड़े किये गए इन सवालों का यह मतलब नहीं है कि रूस की पक्षधरता की जा रही है या अमेरिका का विरोध किया जा रहा है। इसका मतलब यह है कि दुनिया में किसी एक करेंसी की स्वीकार्यता से ज्यादा कई करेंसी की स्वीकार्यता को बढ़ाने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं होगा तो अमेरिका की दादागिरी और गुलामी की तलवार हमेशा लटकती रहेगी। डॉलर से जुडी इस प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर एशियन डेवेलोपमेंट बैंक ने एक बार प्रस्ताव दिया था कि रूस, चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्था को डॉलर के इर्द-गिर्द घूमती दुनिया को चुनौती देने पर विचार करना चाहिए। दुनिया का वित्तीय बाजार पूरी तरह से डॉलर के कब्जे में जाने से रोकने पर विचार करना चाहिए। थाईलैंड को वियतनाम के साथ व्यापर करने के लिए अमेरिका के डॉलर का इंतज़ार करने का मतलब डॉलर की प्रभुता को स्वीकार करना है।

मौजूदा वक्त की हालत यह है कि वित्तीय बाजार की पूरी दुनिया पर डॉलर का दबदबा है। लंदन, न्यूयॉर्क से वित्तीय अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व बाजार नियंत्रित हो रहा है लेकिन दुनिया के उत्पादन श्रृंखला पर अमेरिका का दबदबा नहीं है। सबसे अधिक निर्यात अमेरिका से नहीं होता है। यह एशिया की तरफ झुका हुआ है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो माल और सेवाओं का उत्पादन दुनिया का जो हिस्सा कर रहा है, उस हिस्से के पास दुनिया के वित्तीय बाजार का नियंत्रण नहीं है। जो कोयला और पेट्रोल का उत्पादन का करता है, उसके देश की करेंसी में वित्तीय लेन-देन नहीं होता बल्कि उस देश की करेंसी में होता है, जिसका वित्तीय बाजार पर नियंत्रण है।

चीन की मुद्रा रेनमिनबी से दुनिया का महज 2 प्रतिशत व्यापार होता है। इसलिए अचानक डॉलर के दबदबे को नहीं तोडा जा सकता है। ऐसा करना किसी भी तरह से जायज भी नहीं है। डॉलर की साख भी दुनिया में सबसे अधिक मजबूत है। दुनिया के देशों का भरोसा भी इसमें सबसे ज्यादा है। जब तक इतनी बड़ी साख और मजबूती किसी करेंसी पर नहीं होती तब तक दुनिया से डॉलर की केंद्रीय भूमिका नहीं जाने वाली। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के देशों को इस पर तो विचार करना चाहिए कि दुनिया का वित्तीय बाजार केवल डॉलर के इर्द गिर्द न घूमे बल्कि बहुध्रुवीय बने। चीन, भारत और रूस जैसे देशों की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो ऐसा किया जा सकता है। डॉलर के जरिये दुनिया में बनी अदृश्य गुलामी की सम्भावना को तोडा जा सकता है।

( इस लेख की सामग्री न्यूज़क्लिक यू ट्यूब चैनल पर उपलब्ध वीडियो what is happening in global currency market से ली गयी है। इस वीडियो में न्यूज़क्लिक के चीफ़ एडिटर प्रबीर पुरकायस्थ ने एशियन डेवेलोपमेंट बैंक के भूतपूर्व डायरेक्टर रजत नाग से बात की है।)

कल संसद में पेश होगा आर्थिक सर्वेक्षण, जानिए क्या है Budget से इसका संबंध

इकोनॉमिक सर्वे रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी जाती है कि मनी सप्लाई का ट्रेंड क्या है, इसके अलावा कृषि, औद्योगिक उत्पादन, बुनियादी ढांचा, रोजगार, निर्यात, आयात, विदेशी मुद्रा के मुद्दे पर अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत क्या है।

Edited by: India TV Paisa Desk
Updated on: January 30, 2022 14:07 IST

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Highlights

  • आर्थिक सर्वेक्षण का डाटा केंद्रीय बजट के लिए एक दृष्टिकोण प्रदान करता है
  • आसान भाषा में समझें तो इकोनॉमिक सर्वे मौजूदा वित्त वर्ष का एक लेखा-जोखा होता है
  • 1964 से वित्त मंत्रालय बजट से एक दिन पहले सर्वेक्षण जारी करता आ रहा है

नई दिल्ली। संसद के बजट सत्र की शुरूआत सोमवार को संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में राष्ट्रपति रामनाथ गोविन्द के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में संबोधन के साथ होगी। सत्र के पहले दिन 31 जनवरी को राष्ट्रपति अभिभाषण के बाद दोनों सदनों में आर्थिक सर्वेक्षण (Economic Survey) पेश किया जाएगा। आइए समझते हैं कि आर्थिक सर्वेक्षण का क्या महत्व है और इसके जरिये सरकार किस तरह का बजट पेश करेगी उसका आकलन कैसे कर सकते हैं।

क्या होता है इकोनॉमिक सर्वे

आसान भाषा में समझें तो इकोनॉमिक सर्वे मौजूदा वित्त वर्ष का एक लेखा-जोखा होता है। उदाहरण के तौर पर इस साल एक फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जो बजट पेश करने जा रही हैं, वह आगामी वित्त वर्ष 2022-23 अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व के लिए होगा, लेकिन सोमवार को जो आर्थ‍िक सर्वे पेश किया जाएगा वह मौजूदा साल 2021-22 के लिए है। इसमें पूरे साल के आर्थ‍िक विकास का लेखा-जोखा होगा। पहली बार देश का आर्थिक सर्वेक्षण 1950-51 में पेश किया गया था। 1964 से वित्त मंत्रालय बजट से एक दिन पहले सर्वेक्षण जारी करता आ रहा है। इस रिपोर्ट को डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक अफेयर्स यानी DEA की तरफ से तैयार किया जाता है।

इन विषयों की दी जाती है जानकारी

इकोनॉमिक सर्वे रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी जाती है कि मनी सप्लाई का ट्रेंड क्या है, इसके अलावा कृषि, औद्योगिक उत्पादन, बुनियादी ढांचा, रोजगार, निर्यात, आयात, विदेशी मुद्रा के मुद्दे पर अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत क्या है। यह दस्तावेज सरकार का अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है, जो अर्थव्यवस्था की प्रमुख चिंताओं पर भी ध्यान केंद्रित करता है।

बजट कैसा होगा आकलन कर सकते हैं आप

इकोनॉमिक सर्वे देखकर आप आकलन कर अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा बाजार का महत्व सकते हैं कि सरकार का जोर इस बार किस सेक्टर पर अधिक होगा। आर्थिक सर्वेक्षण का डाटा और विश्लेषण आमतौर पर केंद्रीय बजट के लिए एक नीतिगत दृष्टिकोण प्रदान करता है।

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